प्रासंगिक (२६ अगस्त, १९६७)

 

 किसी शिष्यदुरा पूछे गये एक प्रश्नके बारेमें ।

 

 ''माताजी, कहा गया है कि हमेशा शुभ और सत्यकी विजय होती है, लेकिन जीवनमें प्रायः उलटा ही दिखायी देता है । दुष्ट ही विजयी होते हैं और ऐसा लगता है कि किसी तरह पीडासे उनकी रक्षा होती रहती है ।',

 


( माताजी हंसती है, फिर मौन रहती हैं) । लोग प्रायः दो विचारोंमें गड़बड़ कर देते हैं ।

 

  वैश्व और आध्यात्मिक दृष्टिसे निश्चय ही, लोग जिसे ''शुभ'' समझते है वह नहीं, बल्कि जो 'सत्य' है, 'सत्य' ही विजयी होगा -- यह निश्चित है । यानी, अनंतमें भगवान् विजयी होंगे । यही कहा जाता है । जिन लोगोंने आध्यात्मिक जीवन यापन किया है उन्होंने यही कहा है -- यह एक निरपेक्ष तथ्य है । मनुष्य इसका भाव ग्रहण करते हुए कहते है : ''मैं अच्छा बच्चा हूं, मैं जिसे सत्य समझता हूं उसके अनुसार जीता हूं, इसलिये सारी सृष्टिको मेरे लिये भला होना चाहिये ।', (माताजी हंसती हैं) सबसे पहले, व्यक्तिका अपना मूल्यांकन हमेशा संदेहास्पद होता है । और फिर, जगत् जैसा अब है उसमें सब कुछ मिला-जुला है, यहां 'सत्य' का 'विधान' अपने-आपको खुले तौरपर मनुष्यकी आधी ऊंची चेतना- के आगे अभिव्यक्त नहीं करता -- वह उसे समझ भी न पायेगी । मेरे कहनेका आशय यह है कि, यदि ज्यादा ठीक-ठीक रूपमें कहा जाय तो परम दृष्टि अपने-आपको निरन्तर चरितार्थ करती जा रही है, लेकिन मिश्रित भौतिक जगत् में उसकी उपलब्धि अज्ञान-भरी मानव दृष्टिको शुभकी विजय नहीं मालूम होती, यानी, उसकी विजय नहीं मालूम होती जिसे मनुष्य शुभ और सत्य कहते हैं । लेकिन (मजाकमें कहें तो), यह भगवान्का दोष नहीं है, मनुष्योंका दोष है! यानी, प्रभु जानते है कि वे क्या कर रहे है और मनुष्य नहीं समझते ।

 

 शायद सत्यके जगत् में सब कुछ वैसा ही होगा जैसा अब है, केवल बह अन्य प्रकारसे दिखायी देगा ।

 

दोनों । एक फर्क होगा । जगत् में वर्तमान अज्ञान और अंधकार भागवत 'क्रिया' को विकृत रूप दे देते हैं; और स्वभावतः, यह लुप्त होनेकी ओर प्रवृत्त है; लेकिन यह भी सत्य है कि देखनेका एक तरीका है जो... कहा जा सकता है कि, प्रतीतिको एक और ही अर्थ दे देता है - दोनों इस तरह हैं ( आपसमें मिले होनेकी मुद्रा) ।

 

 ( मौन)

 

  हम हमेशा इसी बातपर लौट आते हैं कि मनुष्यका मूल्यांकन गलत होता है -- गलत, क्योंकि उसकी वस्तुओंको देखनेके दृष्टि गलत होती है,

 


अधूरे होती है -- और अनिवार्य रूपसे इस मूल्यांकनके परिणाम गलत होते है ।

 

   संसार हमेशा बदलता रहता है, हमेशा, एक निमिष मात्रके लिये मी वह अपने जैसा नहीं रहता और सामान्य सामंजस्य अपने-आपको अधिकाधिक पूर्ण रूपमें प्रकट करता है; इसलिये कोई भी चीज जैसी- की वैसी नेही बनी रह सकती । और विपरीत आभासोंके होते हुए समग्र हमेशा प्रगति करता रहता है : सामंजस्य अधिकाधिक सामंजस्यपूर्ण होता जा रहा है, और 'अभिव्यक्ति'में सत्य अधिकाधिक सत्य होता जा रहा है । लेकिन उसे देखनेके लिये तुम्हें समग्रको देखना चाहिये, जब कि मनुष्य केवल... मानव क्षेत्र मी नहीं, केवल अपना निजी क्षेत्र, बिलकुल छोटा, बिलकुल छोटा, बहुत ही छोटा भाग देखता हैं -- उसे भी वह समझ नहीं सकता ।

 

   यह एक दोहरी चीज है जो अपने-आपको पारस्परिक क्रियाके द्वारा पूर्ण करती जा रही है (वही मिलानेकी मुद्रा) : जैसे-जैसे 'अभिव्यक्ति' अपने बारेमें अधिक सचेतन हों जाती है, उसकी अभिव्यंजना अपने-आपको अधिक पूर्ण करती है, और वह अधिक सत्य होती जाती है । ये दोनों गतियां साथ-साथ चलती हैं ।

 

 ( मौन)

 

   उस दिन जब 'ज्ञानकी चेतना' थी, तो जो चीजें बहुत स्पष्ट रूपमें देखी गयी थीं उनमेंसे एक यह थी : जब दिव्य अभिव्यक्ति 'निश्चेतना'में- सें पर्याप्त रूपसे निकल आयेगी ताकि संघर्षकी आवश्यकता, जो 'निश्चेतना'- की उपस्थितिके कारण है, अधिकाधिक अर्थ हों जायगी, वह बिलकुल स्वाभाविक रूपसे गायब हो जायगी, तब प्रगति प्रयास और संघर्षकी, द्वारा होनेकी जगह सामंजस्यके साथ होनी शुरू होगी । मानव चेतना इसीको धरतीपर दिव्य सृष्टिके रूपमें देखती है -- यह भी केवल एक कदम होगा । लेकिन अभीके पगके लिये यह एक प्रकारकी सामंजस्य'पूर्ण उप- लब्धि है जो निरंतर वैश्व प्रगति, (जो अविरत है) को संघर्ष और पीड़ा द्वारा होनेवाली प्रगतिके स्थानपर, आनन्द और सामंजस्यद्वारा प्रगतिको जायेगी... लेकिन जो दिखायी दिया वह यह था कि यह अपर्याप्त, अधूरी और असंपूर्ण चीज बहुत लंबे समयतक चलेगी -- यदि समयके बारेमें हमारी धारणा यही बनी रहे, इसके बारेमें मैं' नहीं जानती । लेकिन सभी परिवर्तनोंमें समय उपलक्षित होता है, है न; यह जरूरी नहिं है कि वह समयके

 

इसी रूपमें प्रस्तुत हो जैसा किए हम समझते हैं, लेकिन उसमें अनुक्रम तो रहता ही है ।

 

   हमारे सामने सारे समय, ये सब तथाकथित समस्याएं -- मनके प्रश्न- पर-प्रश्न और समस्याएं आते रहते है ( 'अविधा'की सभी समस्याएं, है न?) -- केंचुएकी समस्याएं । जैसे ही तुम वहां ऊपर उठ जाओ, इन ममस्याओंका अस्तित्व ही नहीं रहता, और न परस्पर विरोध ही रहता है । विरोध हमेशा दृष्टिकी अपर्याप्ततासे आते हैं, किसी वस्तुको एक ही समय सब दृष्टिकोणोंसे देख सकनेकी अक्षमतासे आते है ।

 

   बहरहाल, अपने प्रश्नपर वापस आनेके लिये, मेरा ख्याल है कि कमी किसी ज्ञानीने यह नहीं कहा होगा : तुम अच्छे बनो और बाह्य रूपमें सब कुछ ठीक हो जायगा -- क्योंकि यह मूर्खता है । अव्यवस्थाके जगत् में, मिथ्यात्वके जगत् में इस प्रकारकी आशा करना बुद्धिसंगत नहीं है । लेकिन अगर तुम काफी सच्चे हो और अपनी सत्ताके तरीकोंमें संपूर्ण और समग्र हों, तो परिस्थितियों चाहे जैसी हो, तुम्हें आंतरिक आनन्द और पूर्ण संतोष मिल सकता है और उसे छूनेकी न किसी व्यक्तिमें और न किसी चीजमें शक्ति है ।

 

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